सोमवार, 9 जून 2008

अस्सी की होली...

बनारस के अपने विद्यार्थी जीवन की कई याद मैं ज़िंदगी भर अपने साथ संजो के रखूंगा, इसमे कोई शक नहीं. पर उनमे से कुछ लम्हें ऐसी हैं जो कभी भी याद आने पर दिल को गुदगुदा देती हैं. इन लम्हों में से एक है, अस्सी की होली! बनारसी होली अपने आप मैं ही काफी प्रसिद्ध है, पर अस्सी की होली भी कम कुख्यात नही है. कॉलेज ज्वाइन करने की प्रक्रिया के दौरान ही मैंने अस्सी के होली का महात्म्य सुन लिया था.
१९९६ मैं पहली बार होली स्थल पर जाकर सुनने का अवसर मिला. अस्सी के बीच सड़क पर ही होली के दिन की कवि संगोष्ठी हुआ करती है. एक स्थान पर मंच लगता है जिसपर कवि गण भोले बाबा के नाम पर भांग रुपी प्रसाद ग्रहण कर बैठा करते हैं. मैं जब पहली बार वहाँ पहुँचा तो मन में यह डर था की अगर किसी दोस्त के घरवाले मिल जायेंगे तो क्या होगा ( बनारस के कई day scholor मित्र अस्सी में रहा करते थे और उनके घरवालों के बीच मेरी छवि एक सीदे-सादे पढने लिखने वाले (?) के रूप में हुआ करती थी.
शाम ढलते ढलते कवि सम्मेलन का कार्यक्रम आरंभ हुआ. शुरुआती भाषण एक प्रभुद्ध साहित्यकार ने दिया. और अपने भाषण के तीसरी पंक्ति तक आते आते उनके मुंह से पहली गाली निकली...और उसके निकलते ही चारों ओर से भोले बाबा की बुमकार की गूँज सुनाई दी. और यह तो सिर्फ़ शुरुआत थी. जितनी गाली उस दिन मैंने वहाँ सुनी (कविताओं में) उतनी उस दिन तक के अपने जीवन में नही सुनी थी . और जो कविता पाठ कर रहे थे, उनमे कोई केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का अध्यक्ष था , तो कोई समाचार पत्र का संपादक, कोई हिन्दी जगत का सुप्रसिद्ध साहित्यकार, तो कोई अस्सी का सबसे कर्मकांडी. गालियों का साहित्यीकरण होते देखा. भड़ास निकलते देखी. और इन गालियों से कोई नही बचा, अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मायावती और सोनिया से लेकर माधुरी.
हिन्दी का कोई भी अश्लील (?) शब्द नही बचा जिसका प्रयोग ना किया गया हो. वाहवाही हरेक कविता को मिली, पर ऐसा भी नही था की सिर्फ़ गालियाँ दे देने पर तारीफें मिली, गालियों के 'रचनात्मक' और 'मौलिक' स्वरूप को ज्यादा सराहा गया और सिर्फ़ सम्भव/ असंभव पारिवारिक सम्बन्ध जोड़ने वालों को और शारीरिक अंगों के नाम बताने वालों को हूट भी किया गया क्योंकि उनमे रचनात्मकता का अभाव था.
कार्यक्रम के अंत में जब लोग बिखरने लगे तो मेरे एक दोस्त के पिताजी ने मुझे देखा और पास बुलाया. पहला सवाल उन्होंने मुझे पूछा ' कार्यक्रम में दिखायी नही दिए? ' कवियों के काव्य पाठ के sequence बताने के बाद ही उन्हें यकीन हुआ कि मैं भी उपस्थित था. बाबा की नगरी ऐसे ही धन्य नही है!

3 टिप्‍पणियां:

sushant jha ने कहा…

कमाल का लिखा आपने...मैं बनारस तो नहीं गया पर उसकी कहानी सुनृ-सुन कर हर रोज अफसोस करता हूं कि मैनें शायद जिंदगी में एक बेहतरीन काम नहीं किया है।

mark rai ने कहा…

i also want to come banaas... and wald the bank of ganga river.thanks for post....really nice

Unknown ने कहा…

मैंने तो सत्तर के दशक के ये सम्मेलन खूब देखे-सुने हैं.गाली साहित्य उस समय अपने स्वर्णकाल में था और बड़े-बड़े विद्वान् मंच के सामने या छिप कर सुनते थे.बाप बेटा से और बेटा बाप से नज़र बचा कर सुनता । मेरे चाचा जी के मकान का बरामदा ठीक मंच के पीछे था, मैंने उनसे एक बार पूछा था परिवार सहित कैसे यह सब झेलते हैं ? उनका जवाब था कहाँ जाएँ ? बस खून का घुट पीकर सब सहते रगते हैं है. हकीकत में उनके लिए ४-५ घंटे कहीं हट-बढ़ कर जाने के कई ठिकाने थे पर हट जाते तो कवी सम्मलेन का रसास्वादन कैसे करते। उस शाम चारो तरफ दूर दूर से पुलिस यातायात रोक देती। भीड़ के सीने पर चढ़ कर गरियाँ और उसे सफलतापूर्वक नियंत्रित करना सांड बनारसी और धर्मशील चतुर्वेदी जैसे खांटी बनारसी के ही बस की बात थी.काबिले तारीफ़ बात ये कि ज्यादातर सामग्री उच्च साहित्यिक शैली में होती थी, फटहे अंदाज नहीं। दुर्भाग्य से वह साहित्य संजो कर नहीं रक्खा गया.