बुधवार, 4 जून 2008

बाबा की याद..

नागार्जुन फक्कर किस्म के इंसान थे। वे कवि थे। वे उपन्यासकार थे। वे पत्रकार थे। वे क्रांन्तिकारी थे। वे हिन्दी में लिखते थे। बंगला में लिखना उन्हें सबसे अच्छा लगता था। ब्राह्मण परिवार में जन्मे और बौद्ध धर्म में दीक्षा ली. उनका व्यक्तित्व इन विविध पहचानों में और भी nikhar कर उभरा। किसी भी तरह के सम्मान और पुरस्कार की लालसा उन्हें कभी नही रही। मातृभाषा मैथिली ने यात्री नाम से उन्हें न सिर्फ़ असीम दिया बरन संभवतः वे उन विरले साहित्यकारों में होंगे जिनकी रचनाएं न सिर्फ़ वामापंथियों कोप्रिय रही अपितु विशुद्ध परम्परावादी साहित्यकारों के बीच भी उन्होंने उतना ही आदर पाया।

बाबा सही अर्थों में जनमानस ke कवि थे। सही arthon में krantikaarii थे। और क्रांति सिर्फ़ कलम तक ही सीमित नही रही बल्कि अनेकों मौकों पर वे संघर्ष कर रहे जनमानस के साथ सड़क पर भी उतरे। बाबा की कई कवितायें 'नंगी' कवितायें थीं। आडम्बरों से परे, आभूषणों से परे, सीधी- gसच्ची बात। जमीन की बात। वीर रस के अधिकांश कवियों की तरह उनकी वक्तृता तो ओजमयी नही thi , पर उनकी छोटी see कविता भी दिल और dimag को झकझोर कर रख deti है।



अकाल का वर्णन कितनी अच्छी तरह बाबा ने इन पंक्तियों में किया है...


क‍ई दिनो तक चुल्हा रोया ,चक्की रही उदास
"क‍ई दिनो तक कानि कुतिया सोयी उसके पास
"क‍ई दिनो तक लगी भीत पर छिपकलीयो कि गस्त"
क‍ई दिनो तक चुहो कि भी हालत रही शिकस्त


"धुआँ उठा आँगन के उपर क‍ई दिनो के बाद
दाना आया घर के भीतर कई दिनो के बाद
कौव्वे ने खुजलायी पाँखे कई दिनो के बाद

चूल्हा चक्की छिपकली और चूहे की gatividhiyon के maadhyam से akaal ka इतना जीवंत वर्णन और कहीं देखने को मिलता। कभी kbhi बाबा कि कविताओं को पढ़कर ऐसा pratiit होता है जैसे उन्होंने ये पंक्तियाँ एक ही बैठक में लिख डाली हैं। इतनी सरल और इतना तारतम्य।



पहली बार जब मैंने नागार्जुन की 'गुलाबी चूडियाँ' पढी तो एकबारगी विश्वास ही नही हुआ कि बाबा ने यह कविता लिखी है। प्रेम, स्नेह, और वात्सल्य का कितना सटीक और जीवंत चित्रण उन्होंने लटकती हुई चूडियों के माध्यम से किया है। अब इन 'चार line को ही देख लीजिये :



तुम्हारी यह दन्तुरित मुस्कान

"मृतक मे भी डाल देगी जान

धुलि-धुसर तुम्हारे ये गात ....

के तालाब मेरी झोपडी मे खिल रहे है जलजात ’







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