शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

वह कविता जिसने मुझे मैथिलीशरण और दिनकर से मोड़ नागार्जुन और सर्वेश्वर की ओर आकृष्ट करने मैं महत्वपूर्ण भूमिका निभाई


शब्द किस तरह कविता बनते हैं,इसे देखो…

अक्षरों के बीच घिरे हुए आदमी को पढो

क्या तुमने सुना की यह लोहे की आवाज है

या मिटटी में गिरे खून का रंग?


लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो…

उस घोडे से पूछो जिसके मुह में लगाम है”
-सुदामा पाण्डेय "धूमिल"


गुरुवार, 24 जनवरी 2008

मेरी पहली तुकबंदी...जिसे मैंने कविता कहकर काफी समय बिताया..शायाद १९९५ के अंत की बात है

निर्जनता कि छोड़ पे बैठा
ताक रहा है किसे पथिक!

क्या ताकता बहती गंगा को
या आसमान में गिरते नभ को
या दूर क्षितिज पर ढलते रवि को
क्या तकता है आँखें मूंदे ?

भर आयीं क्यों आँखें तेरी
थम सी गयीं क्यों साँसें तेरी
रात साब ये दिन लगता क्यो है
मौत साब जीवन लगता क्यों है
शांति ये सम्सानों कि क्यों है?
क्यों है? क्यों है? क्यों है?

क्यों अमूर्त्ता कि तलाश है मूर्त रुप को
क्यों अभिलाषा है जीवन को जिए जाने कि
बस एक सपने कि तलाश मैं
स्वप्न हुआ जाता तू क्यों है?

निर्जनता कि छोड़ पे बैठा
स्वप्न हुआ जाता तू क्यों है?

इक्षाएं

इक्षाएं हैं
कि बार बार निकल पड़ना चाहती हैं

भावनाएं हैं
कि बार बार फुट पड़ना चाहती हैं

दिल है
कि दर्द को महसूस करना चाहता है

दिमाग है
कि सत्य को खोज लेना चाहता है

पर

परिस्थितियां हैं
कि दिमाग को कुंद किये देती है

व्यावहारिकता है
कि दिल को स्पन्दन्हीन किये देता है

बेबसी है
कि भावनाओं को नीलम किये देती है

और बचती हैं
इक्षाएं सिर्फ इक्षाएं
बेबस निरीह भोली भली इक्षाएं.........

हमें तो अब भी वह गुज़रा ज़माना याद आता है

हमें तो अब भी वह गुज़रा ज़माना याद आता है...तुम्हे भी क्या कभी कोई दीवाना याद आता है...

यह सवाल या यह उलाहना किसी और से नही अपने से ही है...अपना ही अतीत अपने से ही सवाल करता है कि क्या तुम्हे भी कोई दीवाना याद आता है?

अतीत की आवारगी अक्सर अपनी ओर वापस खींचती है....और वर्तमान का अवसरवाद उस आवारगी को दीवानेपन का नाम दे दो घरी के लिए रोमांचित और नोस्ताल्गिक हो जाता है। बस और कुछ नही...कोई स्पंदन नही...