शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

वह कविता जिसने मुझे मैथिलीशरण और दिनकर से मोड़ नागार्जुन और सर्वेश्वर की ओर आकृष्ट करने मैं महत्वपूर्ण भूमिका निभाई


शब्द किस तरह कविता बनते हैं,इसे देखो…

अक्षरों के बीच घिरे हुए आदमी को पढो

क्या तुमने सुना की यह लोहे की आवाज है

या मिटटी में गिरे खून का रंग?


लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो…

उस घोडे से पूछो जिसके मुह में लगाम है”
-सुदामा पाण्डेय "धूमिल"


कोई टिप्पणी नहीं: