निर्जनता कि छोड़ पे बैठा
ताक रहा है किसे पथिक!
क्या ताकता बहती गंगा को
या आसमान में गिरते नभ को
या दूर क्षितिज पर ढलते रवि को
क्या तकता है आँखें मूंदे ?
भर आयीं क्यों आँखें तेरी
थम सी गयीं क्यों साँसें तेरी
रात साब ये दिन लगता क्यो है
मौत साब जीवन लगता क्यों है
शांति ये सम्सानों कि क्यों है?
क्यों है? क्यों है? क्यों है?
क्यों अमूर्त्ता कि तलाश है मूर्त रुप को
क्यों अभिलाषा है जीवन को जिए जाने कि
बस एक सपने कि तलाश मैं
स्वप्न हुआ जाता तू क्यों है?
निर्जनता कि छोड़ पे बैठा
स्वप्न हुआ जाता तू क्यों है?
Lok Sabha polls in Barmer 2009
15 वर्ष पहले
1 टिप्पणी:
कविता का ही लगता है चित्र
क्या है इसमें कविता से इतर
विचित्र सत्र मित्र.
अविनाश वाचस्पति
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