शुक्रवार, 10 जुलाई 2009

दुष्यंत कुमार

आज वर्षों बाद दुष्यंत कि कविता की किताब खोली! मुझे याद है कि यह किताब मैंने अपने कॉलेज के दिनों में खरीदी थी। कवितायों ने वोह लम्हें जीवंत कर दिए॥ एक पल को ऐसा लगा कि संवेदनाओं में वापस स्पंदन आ गयी...

मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है ।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है ।

इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है ।
पक्ष औ' प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है ।

हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है ।
दोस्तों ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है

सोमवार, 9 जून 2008

अस्सी की होली...

बनारस के अपने विद्यार्थी जीवन की कई याद मैं ज़िंदगी भर अपने साथ संजो के रखूंगा, इसमे कोई शक नहीं. पर उनमे से कुछ लम्हें ऐसी हैं जो कभी भी याद आने पर दिल को गुदगुदा देती हैं. इन लम्हों में से एक है, अस्सी की होली! बनारसी होली अपने आप मैं ही काफी प्रसिद्ध है, पर अस्सी की होली भी कम कुख्यात नही है. कॉलेज ज्वाइन करने की प्रक्रिया के दौरान ही मैंने अस्सी के होली का महात्म्य सुन लिया था.
१९९६ मैं पहली बार होली स्थल पर जाकर सुनने का अवसर मिला. अस्सी के बीच सड़क पर ही होली के दिन की कवि संगोष्ठी हुआ करती है. एक स्थान पर मंच लगता है जिसपर कवि गण भोले बाबा के नाम पर भांग रुपी प्रसाद ग्रहण कर बैठा करते हैं. मैं जब पहली बार वहाँ पहुँचा तो मन में यह डर था की अगर किसी दोस्त के घरवाले मिल जायेंगे तो क्या होगा ( बनारस के कई day scholor मित्र अस्सी में रहा करते थे और उनके घरवालों के बीच मेरी छवि एक सीदे-सादे पढने लिखने वाले (?) के रूप में हुआ करती थी.
शाम ढलते ढलते कवि सम्मेलन का कार्यक्रम आरंभ हुआ. शुरुआती भाषण एक प्रभुद्ध साहित्यकार ने दिया. और अपने भाषण के तीसरी पंक्ति तक आते आते उनके मुंह से पहली गाली निकली...और उसके निकलते ही चारों ओर से भोले बाबा की बुमकार की गूँज सुनाई दी. और यह तो सिर्फ़ शुरुआत थी. जितनी गाली उस दिन मैंने वहाँ सुनी (कविताओं में) उतनी उस दिन तक के अपने जीवन में नही सुनी थी . और जो कविता पाठ कर रहे थे, उनमे कोई केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग का अध्यक्ष था , तो कोई समाचार पत्र का संपादक, कोई हिन्दी जगत का सुप्रसिद्ध साहित्यकार, तो कोई अस्सी का सबसे कर्मकांडी. गालियों का साहित्यीकरण होते देखा. भड़ास निकलते देखी. और इन गालियों से कोई नही बचा, अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मायावती और सोनिया से लेकर माधुरी.
हिन्दी का कोई भी अश्लील (?) शब्द नही बचा जिसका प्रयोग ना किया गया हो. वाहवाही हरेक कविता को मिली, पर ऐसा भी नही था की सिर्फ़ गालियाँ दे देने पर तारीफें मिली, गालियों के 'रचनात्मक' और 'मौलिक' स्वरूप को ज्यादा सराहा गया और सिर्फ़ सम्भव/ असंभव पारिवारिक सम्बन्ध जोड़ने वालों को और शारीरिक अंगों के नाम बताने वालों को हूट भी किया गया क्योंकि उनमे रचनात्मकता का अभाव था.
कार्यक्रम के अंत में जब लोग बिखरने लगे तो मेरे एक दोस्त के पिताजी ने मुझे देखा और पास बुलाया. पहला सवाल उन्होंने मुझे पूछा ' कार्यक्रम में दिखायी नही दिए? ' कवियों के काव्य पाठ के sequence बताने के बाद ही उन्हें यकीन हुआ कि मैं भी उपस्थित था. बाबा की नगरी ऐसे ही धन्य नही है!

बुधवार, 4 जून 2008

बाबा की याद..

नागार्जुन फक्कर किस्म के इंसान थे। वे कवि थे। वे उपन्यासकार थे। वे पत्रकार थे। वे क्रांन्तिकारी थे। वे हिन्दी में लिखते थे। बंगला में लिखना उन्हें सबसे अच्छा लगता था। ब्राह्मण परिवार में जन्मे और बौद्ध धर्म में दीक्षा ली. उनका व्यक्तित्व इन विविध पहचानों में और भी nikhar कर उभरा। किसी भी तरह के सम्मान और पुरस्कार की लालसा उन्हें कभी नही रही। मातृभाषा मैथिली ने यात्री नाम से उन्हें न सिर्फ़ असीम दिया बरन संभवतः वे उन विरले साहित्यकारों में होंगे जिनकी रचनाएं न सिर्फ़ वामापंथियों कोप्रिय रही अपितु विशुद्ध परम्परावादी साहित्यकारों के बीच भी उन्होंने उतना ही आदर पाया।

बाबा सही अर्थों में जनमानस ke कवि थे। सही arthon में krantikaarii थे। और क्रांति सिर्फ़ कलम तक ही सीमित नही रही बल्कि अनेकों मौकों पर वे संघर्ष कर रहे जनमानस के साथ सड़क पर भी उतरे। बाबा की कई कवितायें 'नंगी' कवितायें थीं। आडम्बरों से परे, आभूषणों से परे, सीधी- gसच्ची बात। जमीन की बात। वीर रस के अधिकांश कवियों की तरह उनकी वक्तृता तो ओजमयी नही thi , पर उनकी छोटी see कविता भी दिल और dimag को झकझोर कर रख deti है।



अकाल का वर्णन कितनी अच्छी तरह बाबा ने इन पंक्तियों में किया है...


क‍ई दिनो तक चुल्हा रोया ,चक्की रही उदास
"क‍ई दिनो तक कानि कुतिया सोयी उसके पास
"क‍ई दिनो तक लगी भीत पर छिपकलीयो कि गस्त"
क‍ई दिनो तक चुहो कि भी हालत रही शिकस्त


"धुआँ उठा आँगन के उपर क‍ई दिनो के बाद
दाना आया घर के भीतर कई दिनो के बाद
कौव्वे ने खुजलायी पाँखे कई दिनो के बाद

चूल्हा चक्की छिपकली और चूहे की gatividhiyon के maadhyam से akaal ka इतना जीवंत वर्णन और कहीं देखने को मिलता। कभी kbhi बाबा कि कविताओं को पढ़कर ऐसा pratiit होता है जैसे उन्होंने ये पंक्तियाँ एक ही बैठक में लिख डाली हैं। इतनी सरल और इतना तारतम्य।



पहली बार जब मैंने नागार्जुन की 'गुलाबी चूडियाँ' पढी तो एकबारगी विश्वास ही नही हुआ कि बाबा ने यह कविता लिखी है। प्रेम, स्नेह, और वात्सल्य का कितना सटीक और जीवंत चित्रण उन्होंने लटकती हुई चूडियों के माध्यम से किया है। अब इन 'चार line को ही देख लीजिये :



तुम्हारी यह दन्तुरित मुस्कान

"मृतक मे भी डाल देगी जान

धुलि-धुसर तुम्हारे ये गात ....

के तालाब मेरी झोपडी मे खिल रहे है जलजात ’







सोमवार, 2 जून 2008

रुके रुके से कदम...

जब स्कूल में था, नवमीं- दसवीं में, तो दोस्तों का एक समूह हमारा भी हुआ करता था। बड़ा ही मस्त। बहुत जिंदादिल- जैसा शायद उम्र में ज्यादातर लोग हुआ करते हैं। साथ पढ़ना, साथ खेलना और साथ साथ ही मोहल्ले कि सड़कों पर घूमना। कोई चिंता नहीं। koi फिक्र नही उम्र भर के लिए जैसे रिश्ते बन गए थे। उस दौर में घरवालों कि उतनी चिंता नहीं थी जितनी दोस्तों कि थी। और ऐसा शायद मेरे साथ ही नहीं हमारे समूह के हर लोगों के साथ था। यह दौर विश्वविद्याला तक चला। हाँ, दोस्त भले ही बदलते रहे या जुड़ते रहे पर दोस्ताने का अंदाज़ वही रहा।

आज विश्वविद्याला छोडे हुए महज़ दस साल हुए हैं। हलांकि दस साल कम नही होते पर इतने ज्यादा भी नहीं होते कि किशोरावस्था के आरंभ से लेकर जवानी के शुरुआती दिनों तक के सालों की याद को धुंधला कर दें। आज भी मेरे दोस्त हैं। कुछ वह भी हैं जो स्कूल के दिनों से साथ थे पर कहीं न कहीं उस स्पंदन का अभाव है जो उस दौर में हुआ करता था।

कुछ दिन पहल एक पुराने मित्र को प्लेन में देखा। मेरे ही दो सीट आगे बैठा हुआ था। उसके साथ कई साल गुज़रे थे। पहली बार जब उसे देखा तो अन्दर से खुशी हुई। सोचा अन्दर जाकरउसके बगल wआली सीट पर बैठ खूब बातें होंगी। पर पता नही क्या हुआ, अंदर आते आते सारा जोश ठंडा हो गया। उससे हाथ तक नही मिलाई। पता नही क्यों इक्षा ही नही हुई। बाद में घर आकर बड़ा पश्चताप हुआ। और उसे मेल करके सब कुछ बता भी दिया। और उसका जब जवाब आया तो लिखा था...दोस्त, देखा तो मैंने भी तुम्हे था!

मंगलवार, 13 मई 2008

सर्वेश्वर उन कवियों मेंहैं जो संवेदनशील व्यक्तियों पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ जाते हैं। सर्वेश्वर की इस कविता ने शायद पहली बार रुमानियत से परिचय करवाया....सही अर्थों मे

तुम्हारे साथ
रहकरअक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकरएक आँगन-सी बन गयी हैजो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।
हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैंकि मैं उनके शीश पर हाथ रखआशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।

तुम्हारे साथ रहकरअक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक की घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार परचढ़कर चले जाने का।

तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दिवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।

शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

बाबा की जनवरी और बाबा का अगस्त

कौन है खिला खिला-खिला, बुझा- बुझा कौन है
कौन है बुलंद आज, कौन आज मस्त है?

खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलंद है, कुली मजूर पस्त है

सेठ यहाँ सुखी है , सेठ यहाँ मस्त है
उसी की ही जनवरी, उसी का अगस्त है

शुक्रवार, 25 जनवरी 2008

वह कविता जिसने मुझे मैथिलीशरण और दिनकर से मोड़ नागार्जुन और सर्वेश्वर की ओर आकृष्ट करने मैं महत्वपूर्ण भूमिका निभाई


शब्द किस तरह कविता बनते हैं,इसे देखो…

अक्षरों के बीच घिरे हुए आदमी को पढो

क्या तुमने सुना की यह लोहे की आवाज है

या मिटटी में गिरे खून का रंग?


लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो…

उस घोडे से पूछो जिसके मुह में लगाम है”
-सुदामा पाण्डेय "धूमिल"